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राजनीति के नेताओं से, कुछ सवाल हम भी करते हैं !!

angaare
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meriudaasikazerdmosamco

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मुजफ्फरनगर में हुए दंगे का दर्द
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खुले आसमाँ के नीचे से, हाथों को घुटने में भींचे !
अपनी बेबस लाचारी की, आग छुपाये दिल के पीछे !
चाह रहे हैं तुम्हें दिखायें, तिल-तिल हम कैसे मरते हैं !
राजनीति के नेताओं से, कुछ सवाल हम भी करते हैं !!
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क्या कसूर हम सब का ये है, इस धरती पर हम भी जन्मे !
खेले – कूदे, पले – बढ़े हम, यहीं, इसी घर में, आँगन में !
कुछ ही दिन पहले तक सबके, मन में प्रेम-धार बहता था !
प्यार और अपनत्व सभी को, एक दूसरे से मिलता था !
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धर्म-जाति की सोच नहीं थी, मन में कोई पाप नहीं था !
सीधे और सच्चे समाज में, रत्ती भर अभिशाप नहीं था !
एक दूसरे से मिलजुल कर, आपस में रहते थे हम सब !
नहीं द्वेष का लेश कहीं था, ईश्वर – अल्ला हों या हों रब !
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सलमा हो अथवा सोनी हो, नीलम हो या नीलोफर हो !
शिवशंकर हो या सल्लू हो, जगन्नाथ हो या जाफर हो !
एक दूसरे के चाचा – चाची, ताऊ – ताई हम सब थे !
घर के अंदर अपने-अपने, सबके ईश्वर थे या रब थे !
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बच्चों को तो पता भी नहीं, चल पाता था इन बातों का !
धर्मों के पीछे के , चलनेवाले घातों – प्रतिघातों का !
जिस दिन से तुम सब समाज के, ठेकेदार यहाँ पर आये !
ठीक उसी दिन से जनजीवन में दुर्दिन के बादल छाये !
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चैन और सुख-शान्ति छीनकर, जहरबीज तुम सबने बोया !
हिन्दू-मुस्लिम के लोहू में, तुमने काला चेहरा धोया !
जहर बुझे तुम सबके भाषण, का ऐसा परिणाम हो गया !
झंझा ऐसा उठा भयंकर, घर का घर वीरान हो गया !
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उजड़ गए कितने ही गुलशन, कितनों का अरमान सो गया !
बेबस बैठे मौत मांगते, जीवन ही शमसान हो गया !
पता नहीं कैसे अब तक मैं, जिन्दा हूँ ऐसी धरती पर !
घर-समाज परिवार सभी खो, कर बैठा हूँ इस परती पर !
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याद अभी वह दृश्य मुझे है, तरुण-वृद्ध-नादान युवा सब !
कैसा तुमने खेल रचाया, उद्वेलित हो गये अचानक !
उजड़ गये परिवार हज़ारों, सूनसान घर-गाँव हो गये !
अरमानों में आग लग गई, जाने कैसा पाप बो गये !
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ऐसे ही उन्मादित क्षण में, भाई अपने ही भाई का !
अपने ही पड़ोस में रहने वाले ताया और ताई का !
बन पिशाच कर अट्टहास पी, रहा रक्त था वह उन सबका !
सिर पर उसके नशा चढ़ा था, पता नहीं कैसे “मजहब” का !
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भूल गये सामाजिक रिश्ते, भूल गये सामाजिक बंधन !
भूल गये होली – दीवाली, याद न आया रक्षा बंधन !
तोड़ के रिश्तों के धागे को, पता नहीं क्या सोच रहे थे !
अपनी ही बहनों के तन को, पागल होकर नोंच रहे थे !
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आँखों के सम्मुख बेटी – बेटे कि लाशें घूम रही थीं !
पोते की निर्जीव देह को, दादी उसकी चूम रही थी !
कुल का दीपक यहीं एक मुट्ठी में उसके बचा हुआ था !
रिक्त हो गया था जीवन, खोने को अब क्या रखा हुआ था !
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क्या पाया ? ऐसा करके यह, अब भी समझ नहीं पाता हूँ !
कितनी कुत्सित सोंच तुम्हारी, काँप-काँप कर रह जाता हूँ !
आह – कराह और चीखों की, ज़रा नहीं परवाह कर रहे !
राजनीति लाशों की करके, सिंहासन की चाह कर रहे !
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सिंहासन से हमको क्या है, ले जाओ तुम सब ही चाटो !
लेकिन एक निवेदन सुन लो, हमको आपस में मत बाँटो !
हम सीधी – सादी जनता हैं, थोड़े में ही खुश रहते हैं !
छोटी सी दुनिया हम सब की, सुख-दुःख मिलजुल कर सहते हैं !
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तन “जनता” का है “दधीचि” का, हमसे हमको दूर मत करो !
चीर अस्थियां “बज्र” बनाने को हमको मजबूर मत करो !
वर्ना क्या परिणाम तुम्हारा, होगा समझ नहीं पाओगे !
पलक झपकते ही “जनता” की, मिट्टी में तुम मिल जाओगे !

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